महामुनि महावीर ने दीक्षा के बाद बेला के उपवास के पश्चात प्रथम आहार कूल नगर के राजा कूल के घर में लिया था , तब राजा कूल के घर में देवों ने पुष्प - रत्न आदि पंचाश्चर्यों की वर्षा की थी। बंधुओं! यहाँ आपको ध्यान देना है कि तीर्थंकर जन्म लेने के बाद मनुष्य लोक का भोजन नहीं ग्रहण करते हैं, वे दीक्षा के बाद ही मनुष्यों के घर में नवधाभक्तिपूर्वक आहार लेते हैं । आर्यिका चंदनामती
महानुभावों! भगवान् महावीर तीस वर्ष की आयु में वैराग्य भाव धारण कर कुण्डलपुर के मनोहर वन में जाकर दीक्षा धारण कर ली थी, वे शाल वृक्ष के ध्यानलीन हो गए । इन्द्र उनके समक्ष किंकर बन कर सदैव खड़ा रहता था। आर्यिका चंदनामती
जब महावीर युवावस्था को प्राप्त हुए , उनके माता-पिता ने उनके विवाह करने हेतु अनेक सुंदर कन्याओं को देखा , जैसे ही महावीर को ज्ञात हुआ उन्होंने विवाह करने से मना कर दिया।
वे बालब्रम्ह्चारी रहे और तीस वर्ष की उम्र में जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपस्या करने लगे।
भगवान् महावीर एक बार शिशु अवस्था में पालने में झूल रहे थे, तब आकाश मार्ग से दो चारण रिद्धिधारी मुनिराज उनके महल में पधारे और तीर्थंकर बालक को देखते ही उनकी शंका का समाधान हो गया अतः मुनिराज ने उनका नाम सन्मति रखा । इस प्रकार महावीर का सन्मति नाम पडा। वे सन्मति भगवान् हम सभी को सद्बुद्धि प्रदान करें। आर्यिका चंदनामती
महानुभावों! भगवान् महावीर के पूर्व भवों में आप पढ़ रहे हैं कि वे अभी स्वर्ग में हैं और इधर मध्य लोक की कुण्डलपुर नगरी में स्वर्ग से देवों ने आकर दिव्य नगरी की रचना कर दी । उस नगर में सुन्दर नन्द्यावर्त महल सात मंजिल का बना दिया, जिसमे राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती निवास करने लगे । आज से लगभग २६०८ वर्ष पूर्व उन राजा सर्वार्थ के पुत्र सिद्धार्थ का विवाह वैशाली के राजा चेटक की पुत्री त्रिशला के साथ हुआ । पुनः सिद्धार्थ और त्रिशला सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। आगे आप जानेंगे कि कुण्डलपुर में क्या होता है ----- आर्यिका चंदनामती
स्वर्ग से अपनी आयु पूरी करके देव ने मनुष्य भव धारण कर धातकी खंड द्वीप में प्रियमित्र चक्रवर्ती बन कर राज्य संचालन किया। पुनः वहां वैराग्य हो गया,तो दीक्षा धारण कर तपस्या की और समाधि पूर्वक शरीर त्याग करके वे बारहवें स्वर्ग में देव हो गए । महानुभावों! भगवान् महावीर के इन भवों से हमें शिक्षा लेना है कि कभी न कभी जीवन में संयम अवश्य धारण करना चाहिए ताकि एक दिन हम भी भगवान् बन सकें। आर्यिका चंदनामती
स्वर्ग के सुखों का अनुभव करते हुए भगवान् महावीर के जीव ने वहां जिनेन्द्र भगवान् की खूब भक्ति की, और असीम पुण्य का संचय करते रहे। यह पुण्यात्माओं का जीवन हम सब के लिए अनुकरणीय रहता है । आर्यिका चंदनामती
राजा हरिषेण की पर्याय में उन्होंने श्रुत सागर मुनि के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर सल्लेखना मरण पुर्वक शरीर का त्याग किया और स्वर्ग में देव हो गए। इससे शिक्षा ग्रहण करना है कि मनुष्य गति पाकर संयम अवश्य पालन करना चाहिए। आर्यिका चंदनामती
भगवान् महावीर ने धीरे - धीरे अपने जीवन में प्रगति करते हुए आठवें भव में स्वर्ग में जन्म धारण करके देव बन गए , वहां दिव्य सुखों का अनुभव करके अकृत्रिम जिन मंदिरों के दर्शन करते हुए प्रतिमाओं की पूजा में अपने जीवन को व्यतीत करने लगा। आर्यिका चंदनामती
महानुभावों! आपने भगवान् महावीर के पिछले चार भवों के बारे में जाना है। पांचवे भव में वह स्वर्ग में देवता होगए , वहां वे दिव्य सुखों का उपभोग करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगे। देखो! एक बार मुनि के संबोधन को पाकर सिंह जैसे क्रूर पशु ने भी अपना जीवन सुधार लिया, तो आप मनुष्य पर्याय से अपना हित करने की प्रेरणा अवश्य प्राप्त करें। आर्यिका चंदनामती
महानुभावों ! जिस पुरुरवा भील ने मुनि के मुख से धर्म स्वीकार कर स्वर्ग को प्राप्त किया था, वही स्वर्ग से आकर अयोध्या के राजा भरत का पुत्र मरीचि कुमार हो गया। उसने अपने बाबा भगवान् रिषभ देव के साथ दीक्षा धारण कर ली , किन्तु वह भूख -प्यास से व्याकुल होकर पद से भ्रष्ट हो गया और मिथ्या तापसी बन कर उसने अनेक मिथ्या मतों का प्रचार किया। जिसके कारण वह बहुत समय तक संसार में दुक्ख उठाता रहा। Aaryika Chandnamati JAMBUDWEEP
ब्राम्ही चंदनबाला जैसी छवि जिनमें दिखती रहती । कुंद कुंद गुरुवर सम जिनकी सतत लेखनी है चलती॥ नारी ने भी नर के सदृश बतलाई चर्या यति की। मेरा शत वंदन स्वीकारो गणिनी माता ज्ञानमति॥ आर्यिका चंदनामती जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर